Tuesday, November 15, 2011

भीड़ और मैं

भीड़   और    मैं
भीड़   का  मतलब  है  लोगों का  जमघट.  रेलगाड़ी  की  टिकिट   लेने  जाओ , राशन  की  दुकान  पर  जाओ,बच्चों  के  दाखिले  के  लिए  जाओ,  डाक्टर  के  पास  जाओ ,बस स्टाप पर जाओ , पानी की लाइन  में जाओ , मेले  में  जाओ , सत्संग  में  प्रवचन  सुनने  जाओ , सब  जगह  लोगों  का  जमघट .आजकल  भीड़ का  होना  भी  फैशन  हो  गया  है .शोक  सभा  हो या  संगीतकारों  की  सभा  ,जन्मदिन  की  पार्टी  हो  या  फिल्म  वालों  का  कोई  प्रोग्राम, बंदर  का  तमाशा  हो , या  मुंबई  की  लोकल  गाड़िओं   के  ठप्प  हो  जाने  से  लोकल  स्टेशनों  पर  अत्यधिक  भीड़ का  होना  आजकल  एक  आम  बात  हो  गयी  है   . अगर  जमघट    हो  तो  माना  जाता  है  कि  वहां  की  जनसँख्या  कम  है .
        इस  भीड़  में  कौन  लोग  होतें  है ? आप  और  मैं . इसके  बिना  भीड़  हो  ही  नहीं  हो  सकती . सड़क  के  चौराहे   पर  ट्रैफिक  पुलिसमैन  एक   हाथ  ऊपर  करता  है  तो  झट  से  लोगों  की  भीड़  वहीँ  की  वहीं  ठहर  जाती  है . और  जैसे  ही  दूसरा  हाथ  ऊपर  उठाता  है ,भीड़  आगे  बड़ने लगती  है . एक दूसरे  को  धक्का  देते  हुए  भीड़  तितरबितर  हो  जाती है . थोड़ी  देर  वहां  खड़े  हो  कर  दृश्य  का  मज़ा  लीजिये . कैसे  स्वचालित  मशीन  सिग्नल  की हरी   बत्ती  से सब लोग  चलने  लगते  हैं .लाल से  रुक  जाते  हैं . लोकल  गाडी  की  बात तो कुछ और  ही है . कुछ डिब्बेइतने खचाखच भरे होते हैं कि  जैसे गाड़ी     रुकी  कि  दरवाजे  के  पास  खड़े  लोग  उतरना  चाहें  या    उतरना  चाहें  भीड़  उनको  गाड़ी   से  नीचे  धकेल  ही   देती  है .
आप  और  मैं  चाहते  हैं  कि भीड़  कहीं  पर    हो . इसका  भी  हल  है .हम  जहाँ  भी  जाएँ  कतार  का  पालन  करना  सीखें . थोडा  सयंम  रखें . लेकिन  अगर  भीड़    हो तो ज़िंदगी में मज़ा या आनंद     ही  नहीं  आता . जैसे  कहीं  प्रवचन   हो  तो  वहां  शिष्यों  की  संख्या  का  पता  चलता  है , किसी  नेता  का  भाषण  हो  तो  वहां  वोटों   की  गिनती  करना  आसान  हो  जाता  है , कोई  रैली  हो  तो  पुलिस  की  लाठियों  का  प्रयोग  हो  जाता  है , चैरिटी   शो  हो  तो  कितना  चंदा  इकठ्ठा  हुआ  संस्था  को  इसका  अनुमान  हो  जाता  है आदि . खेल  के  मैदान  में  भीड़  का  अपना  अलग  ही  महत्व  है . अगर  वहां  जमघट    हो  तो  बल्लेबाज़  अपनी  जगह  से  ही    हिले . भीड़  की  तालियों  की  गढ़गढ़ाहट सुन  कर  ही  तो  वह  शतक  बना  पाता है .
 भीड़  किराए  पर  भी  मिलती  है . जिनको  नौकरी , कुछ  काम  धंधा  नहीं  मिलता , वे  कुछ  ऐसी  संस्थाएं  बना  लेते  हैं  जो  भिन्न - भिन्न  प्रकार  की  भीड़  प्रदान  करने  का  व्यापर  करते  हैं .शोक  सभा  के  लिए , या  कहीं  पत्थर  फैंकने  के  लिए , किसी  जुलूस  के  लिए , या  फिर   किसी  फिल्म  के  दृश्य  के  लिए . इस  तरह  दोनों  पार्टियों  से  कमीशन  ले  कर  अपनी  रोटी  रोजी  के  लिए  पैसा  जुटाते  हैं . भीड़  की  आवाज़  कितनी  प्रभावशाली  होती  hai  इसका  अनुमान  तो  स्टेज  पर  बैठा  हुआ  व्यक्ति   ही  बता  सकता  है . उसको  टमाटर  मिलते  हैं  या  फूलों  का  गुलदस्ता .
आप  और   मैं  अगर    हों  तो  सोचिए भीड़  नहीं  बन  सकती  क्योंकि   हम  ही  तो  भीड़  के  हिस्से  हैं ………….




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