Tuesday, March 12, 2013

कन्धों का बोझ

कन्धों का बोझ
            चौराहे पर लाल बत्ती का सिग्नल हुआ और सभी वाहन चालकों ने अपने -अपने वाहन की  ब्रेक लगाई और वहीं के वहीं रूक गए॥पैदल आने-जाने वालों ने रास्ता पार करना शुरु किया॥उनमें एक  ऐसा पिता था जो अपने युवा बेटे को अपने कन्धों पर बैठा कर सड़क पार कर रहा था॥उसके बेटे की दोनो टाँगे एक लम्बी डंडी की तरह पोलियो का शिकार हो चुकी थी॥पिता ने फुटपाथ पर पहुँच कर बेटे को नीचे उतारा और हाथ में दो वैसाखियां थमा दी॥अब वैसाखियां ही उसकी टाँगे बन चुकी थीं॥उनके सहारे वह धीरे-धीरे चलने की कोशिश करने लगा॥
    पिता को अपने बेटे के जन्म पर बहुत प्रसन्नता हुई थी॥ धूमधाम से उत्सव मनाया गया॥ उसकी चिन्ता दूर हुई कि एक दिन उसका बेटा उसके कन्धों का बोझ सम्हालेगा॥उसका दादा अति प्रसन्न हुआ था कि बुढ़ापे में उसका हाथ पकड़ने वाला घर में गया है॥उसे लकड़ी पकड़ने की आवश्यकता नहीं होगी॥
    लेकिन एक युवक जिसे हिमालय को छूने की तमन्ना थी अब निराश हो चुका था॥उसको जीवन में कुछ भी कर पाने की आशा समाप्त हो चुकी थी॥जीवन निर्रथक लगने लगा था॥कब तक पिता के कन्धों का बोझ बना रहेगा॥उसके मित्रों ने प्रोत्साहित किया कि जीवन एक संर्घष है,चुनौती है॥डट कर सामना करो॥उसे धुंधला-धुंधला याद है कि जब वह स्कूल में दूसरी या तीसरी कक्षा में था उसे बहुत तेज़ बुखार आया था॥बुखार उतर जाने पर उसे बहुत कमज़ोरी हो गई थी और वह चलने में असमर्थ था॥एक दिन उसने अपनी माँ को रोते हुए देखा तो पूछा कि वह क्यों रो रही थी॥वह उसे गले लगा कर फूट-फूट कर रोने लगी॥जब  वह स्कूल जाने की बात कहता तो उत्तर देती कि अभी वह बहुत कमज़ोर है॥लेकिन वह दिन कभी नहीं आया॥माँ-बाप कोशिश करते रहे कि वह चलने लायक हो जाए॥पर समय बीतता गया और वह भूल गया कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह कभी उछल-कूद करता था॥
    उसके पिता ने उसे एक दुकान पर नौकरी ढूंढ दी॥वह उसे कन्धों पर बैठा कर सुबह छोड़ आता है और शाम को उसी तरह वापिस ले आता है॥ताकि वह आत्मनिर्भरता महसूस कर सके॥लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा॥पिता भी उदास  रहने लगा है॥जिसे वह अपने कन्धों का बोझ देना चाहता था वह उसी के ही कन्धों का बोझ बन चुका था॥
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अक्टोबर 2001




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