A ROMANTIC POEM BY SANTOSH GULATI प्रिये लौट आओ
-----संतोष गुलाटी -------
27/11/2012
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गया था किचन में खाना बनाने -हाथ जला बैठा ,
ब्रैड सेकता रहा -आमलेट जला बैठा , दाल गलती रही -रोटी जला बैठा , प्रिये लौट आओ
माँ ने नहीं सिखाया–पत्नी बिन कैसे जिया जाए .
धोबी ले गया कपडे - कमीज़ गुमा बैठा ,
जूते के लेस का पता नहीं -जुराब का जोड़ा गुमा बैठा ,
छींक आई क्या करूँ –रुमाल किसी ने दिया नहीं ,बाल कैसे संवारूं –कंघी है ही नहीं,
माँ ने नहीं सिखाया –पत्नी बिन कैसे जिया जाए . प्रिये लौट आओ
तेरे बिन कैसे जियूं - एक बार लौट आओ ,आ कर सिखा जाओ –अकेले कैसे जिया जाए ,
आफिस से जैसे लौटा -तो किसी ने खोला न द्वार ,
क्यों भूल गया अब कोई नहीं करता है मेरा इंतज़ार ,
पत्थर का घर खाली होगा कैसे वहां रहा जाए ,
माँ ने नहीं सिखाया –पत्नी बिन कैसे जिया जाए . प्रिये लौट आओ
जूते पहने ही सो गया बिस्तर पर ,
झट से पाँव नीचे किये -याद आई तुम्हारी फटकार ,
कि अभी चिल्लाओगी -धेले की अक्ल नहीं ,
माँ ने कुछ नहीं सिखाया - कर दिया घर गंदा अंदर -बाहर ,
आँख भीच कर सो गया -लगा तुमने पकड़ा हाथ ,
मैं बोल रहा था –प्रिये तुम लौट आई , मेरे जीवन में फिर से रोशनी आई ,
तुम रहो बस मेरे आस पास , बस अब जियेंगें –मरेंगें साथ -साथ ………
27/11/2012
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