20/08/11
सुबू ऐसे खेलता है
एक लड़का था । उसका नाम था सुबैय्या। लोग उसे सुबू कहकर बुलाते थे। उसकी उमऱ होगी तेरह-चौदह बरस की । वह लॊगॊं के घरों मे॔ झाड़ू बुहारना, बरतन साफ करना , कपड़ॆ धॊना, जैसा काम करता था । सुबह से लेकर रात तक काम ही काम करता था। और रात को एक झोपड़ी मेॱचटाई बिछाकर सो जाता था। बस यही थी उसकी दिन चर्या । दूसरे बच्चो॔ की तरह क्रिेकेट खेलना‚ पतंग उड़ाना‚ उसके भाग्य मे॔ न था। अपनी आयु के दूसरे बच्चों को दूर से देखता रहता था। उसका अपना साथी कोई न था। वह गाँव से अपने दूर के रिश्तेदार के साथ मुम्बई आया था . वह जब काम करता था कुछ न कुछ बडबडाया करता था. कई लोग उसे पागल कहकर पुकारते थे . परन्तु उसके काम में कोई गलती न थी.
एक दिन जब वह बर्तन धो रहा था तो मैंने उसके पास जाकर सुना तो था वह कह रहा था " यहाँ बैठ जाओ, तुम उधर खड़े रहो , अभी तुम्हारी बारी नहीं है, तुम्हें क्या जल्दी है, सब एक
कतार में खड़े रहो, जायो शोर नहीं मचाओ इत्यादि ". कपड़ों से बातें करता था, शर्म नहीं आती . जुराबें देखो कितनी गंदी कर दी हैं . शर्म नहीं .यह कमीज़ क्यों फाड़ कर लाये हो ? चलो सब बच्चे साफ़
सुथरे हो गए हैं. भिगोया ,पीटा और चटाचट साफ़ .
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जब पूछा कि इस तरह क्यों बडबडाता रहता है
तो उसने उत्तर दिया , " मेम साहिब , मैं भी चाहता हूँ कि दुसरे बच्चों की तरह
पढूं . और खेलूँ लेकिन मेरे पास इतना समय ही कहाँ है. मैं मन बहलाने के लिए सीटी बजाता हूँ तो लोग मुझे ऐसा करने से मना करते हैं. मैं क्या करूं मेरे साथ बात करने वाला भी तो नहीं है. किसके पास समय है कि मेरे मन का दुःख समझें .
पढ़ लिख कर एक बड़ा आदमी बनने की आकांक्षा है. सब को अपना काम समय पर चाहिए . अभी तो केवल पेट भरने की बात सोचता हूँ. जिसके लिए मेरे माँ बाप ने यहाँ भेजा है. मेरा काम ही मेरा खेल बन गया है. ......END
-संतोष गुलाटी --
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