आजादी या बर्बादी
अगस्त उन्नीस सौ संतालिस का समय. लाला राम प्रसाद एक जीर्णशीर्ण
कमरे में अँधेरे में एक पुरानी चादर पर लेटे हुए अपने बीते हुए समय में खो गए. पंद्रह अगस्त हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लीडर स्वतंत्रता का जश्न मना रहे थे लेकिन लाला राम प्रसाद अपनी बर्बादी
को देख रहे थे .
एक आलीशान मकान के मालिक हजारों के व्यापारी अपनी दशा को देख कर
आंसू बहा रहे थे . यह कैसी आज़ादी. न अपना घर ,न अपने संगी - साथी ,न अपने मित्र. क्या
बीता समय लौट आयेगा ? साठ की आयु में वे अब क्या कर पाएंगे. अब तो उनके बेटे या
पोते ही कुछ करेंगे .
उनके आगे पीछे नौकर - चाकर घूमते थे . लेकिन अब वे स्वयं किसी के नौकर
बन गए थे . दो समय की रोटी के जुगाड़ के लिए कमर तोड़ काम करना पड़ता था . कुछ दिन शरणार्थी कैम्प में रहने वालों की सेवा की . अपने दुःख - सुख किसके साथ बांटते .
सभी तो एक सामान दशा में थे . धीरे-धीरे बिछुड़े संबंधी मिल गए . एक नया संसार बन गया .
जैसे - तैसे रहने का ठिकाना ,खाना , पीना ,सुधर गया .
दस वर्ष बीत गए . वे दिन लौट कर न आये .पोतों ने अपने घर बसा लिए . लेकिन
वे कभी यहाँ तो कभी वहां . दिन - रात भटकते हुए वह अपनी खुशी फिर न पा सके . और इसी
तरह एक रात को सोये तो सुबह फिर ना उठे . उनका जीवन हमेशा के लिए समाप्त हो गया . उनका स्वर्गवास हो गया . कौन जाने स्वर्ग में गए या नरक में . इस जिन्दगी से तो उन्हें आजादी मिल गयी लेकिन बर्बादी पीछे छोड़ गए .--------------------------------------------------